सोमवार, 26 जुलाई 2010

वीर छत्रसाल की मां लालकुवरि

भाभी भाभी । अरे देखो तो । कोई अश्वारोही इधर ही तेजी से घोड़ा दौड़ाता चला आ रहा है । भैय्‌या तो हो नहीं सकते । इतनी जल्दी लौटकर आ भी कैसे सकते है? हो न हो कोई शत्रु हो । सैनिकों को सावधान करना होगा । भाभी का हाथ अपनी ओर खीचते हुए उसकी नंनद बोली । स्त्री का रोम रोम सिहर उठा । अब क्या होगा ? लाली । हांफती हुई वह बोली ।




नाहक घबराती हो, भाभी। होगा क्या? मैं तो हूं ही लालकुंवरी ने उसको ढाढस बंधाया । टपटपटपट पट् खट् खट् अश्व के टापों की आवाज समीप आती स्पष्ट सुनाई देने लगी थी । काया का धुंधला धुंधला सा चेहरा भी दिखई पड़ने लगा था ।शीतला ने दूर दूर तक आंखो गढ़ाकर अपनी दृष्टि दौड़ाई यकायक उसक मुरझाया हुआ मुखड़ा खिल उठा । अरी नही री । ये तो वहे ही हैं तेरे भैय्‌या । उतावली में शीतला अपनी नन्द से बोलीं ।



संभवतः सन १६३५ में किसी शाम का वह किस्सा है । गढ़ी के बुर्ज पर दोनो स्त्रियां खड़ी शत्रु की गविधियों की टोह ले रही थीं यह गढ़ी ओरछा के राज्य के अन्तर्गत थी । यहां का गढ़पति था अनरुद्ध । लालकुंवरी का भाई । शीतला थी अनिरुद्ध की पत्नी वह हाल में वधू बन कर आई थी । शीतला से यही कोई दो तीन साल छोटी लालकुवरी रही होगी । समवयस्क होने के नाते ननद भाभी में सहेलियो जैसा अपनापा बन गया था । शीतला स्वभाव से कुछ भीरु और रसिक थी । इसके विपरीत लालकुंवरि निर्भीक औरसाहसी थी । बचपन से ही भाई के साथ उसे तलवारबाजी और भाला चलाने का अभ्यसास कराया गया था । भाई और बहिन में अतिशय प्रेम था । उस समय देश में मुसलमानों का राज्य था ।उनका बुंदेलखंड पर पूर्णरूप से अधिकार हो चुका था । फिर भी उसको स्वतंत्र कराने का प्रयास चल रहे थे । मुगलों के विरुद्ध ऐसे ही एक मोरचे पर अनिरुद्ध युद्ध करने को गया था । अपनी अनुपस्थिति में गढ़ की सुरक्षा का भार वह बहिन को सौंप गया था ।शीतला और अनिरुद्ध का नया नया विवाह हुआ था । उसके हाथों की मेंहदी अभी सूख भी नहीं पायी थी कि पति को युद्ध में जाने का न्यौता मिला था ।वह उद्धिग्न हो उठी उसने पति को प्रेमपाश में बांधनाचाहा था ।नेत्रों से आंसुओं की झड़ी लग गयी । बड़ी बड़ी सुंदर आंख से झरते अरु बिंदुओं को देख अनिरुद्ध का मन भी अंदर अंदर कच्चा पड़ने लगा था ।



पता नही युद्ध का क्या परिणाम हो ? विवाह का सुख क्या होता है । यह उसने अभी जाना भी न था । यद्यपि युद्ध में मरने मारने की घुट्टी क्षत्रियों को घूंटी में ही पिलाई जाती है । राजपूत सैनिकों के जीवन और मृत्यु के बची का फासला बहुत कम होता है ।उसके सामने एक ओर था प्रणय और दूसरी ओर कर्तव्य । दुविधा में फंसा था उसका मन । भाई की दुर्बल मनःस्थिति को बहिन ताड़ गयी । लाल कुंवरि ने कहा भैयया इसी दिन के लिए ही तो क्षत्राणियां पुत्रों को जन्म देती हैं बहने । भाइयों को राखी बांध कर हंस हंस कर रण भूमि के लिए विदा करती हैं क्या क्षणिक मोह में पड़कर मेरा भाई कर्तव्य से विमुख हो जाएगा ।? नहीं भइया नहीं । तुम जाओं देष की धरती तमुमको पुकार रही ह। चिंता न करो । मैं और भभ्ी गढ़ को सम्हाल लेंगी । राजपूतनियां अपना अंतिम कर्त्रव्य भी अच्छी प्रकार से निबाहना जानती हैं । मेरे जीवित रहते शत्रु गढ़ी में प्रवेश नहीं करेगा । आप निष्चिन्त रहे । लालकुंवरि यद्यपि शीतला से थी तो छोटी ही पर उसके विचारों में आयु से अधिक परिपक्वता और प्रौढ़ता आ गयी थी । बहिन की ओजस्वी वाणी को सुनकर भाई की भुजाएं फड़क उठी । गर्व से सीना फूल गा । मन पर पड़ा क्षणिक मोह का अवरण काई के समान फट गया । रणबांकुरा युद्ध के मोरचे पर चल पड़ा ।

शीतला नेत्र सके पति को युद्ध भूमि में जाने के लिए प्रेरित करने पर ननद को खरी खोटी सुनाई थी तभी से वह लाली से चिढ़ी हुई थीं भाभी के हृदय को बीधने वाले वाक्यों को लाली ने हंसते हंसते पी लिया था । दोनो जल्दी जल्दी बुर्ज से नीचे उतरी । गढ़ी के दरवाजे पर जा पहुंची । तब तक घुड़सवार फाटक पर आ पहुंचा था । वह अनिरुद्ध ही था । उसमें उत्साह की झलक न देख बहिन का माथा ठनका । भैयया थोड़ा रुको मैं अभी आरती लेकर आती हूं । आप युद्ध में विजयी हाकर लौटे हैं वह भाई से बोली । सहोदरा की बात सुन अरिरुद्ध का मुख स्याह पड़ गया । गर्दन नीचे को झुक गयी । लज्जित हो वह बोला नहीं बहिन मैं किसी तरह से शत्रुओं से बच भागकर यहां आया हूं । वह भयभीत होकर रण भूमि से भाग निकला है यह सुन लालकुंवरि को जैसे सहस्रों बिच्छुऒं ने उंक मार दिया धिक्कार हैं तुम्हें । शत्रु को रण में पीठ दिखाकर भागने से तो अच्छा है कि मेरा भाई कर्तव्य की वेदी पर लड़ते लड़ते बलि चढ़ जाता । मां के दूध को लजानेमे तुम्हें शर्म नहीं आई । तुम कोई और हो मेरे भाई तो तुम कदापि नहीं हो सकते ।वह तो शूरवीर है । कायर नहीं । उसके वेश में अवश्य को छद्मवेषी है । तुम्हारे लिएदुर्ग का द्वार नहीं खुल सकता । बहिन भाई पर क्रुद्ध सर्पिणी सी शब्द बाण ले टूटपड़ी थी । पहरेदारों को उसे आदेश दिया ।किले का दरवाजा मत खोलों इस समय इसकी रक्षा का दायित्व मेंरे उपर है । मेरी आग्या का पालन हो । बहिन की प्रताड़ना सुन अनिरुद्ध पानी पानी हो गया थ । वह उसी समय वापिस लौटपड़ा । शीतला ननद पर क्रोध से बिफर पड़ी तूने यह अच्छा नहीं किया लाली । कितने थके थे वे ? अगर तेरे पति होता तू इतना उपदेश नहीं देती । दौड़ कर उसे अपने अंक में छिपा लेती । किसी को उसकी हवा भी न लगने देती । भगवान न करे वह दिन आए । यदि मेरा पति इस प्रकार से भीरुता दिखा, भाग कर छिपने को आता तो सच कहती हूं भाभी। तेरी सौगंध मैं उसकी छाती में कटार ही भोंक देती । और फिर उसके साथ ही अपनी भी जीवन लीला समाप्त कर डालती । लाकुंवरी ने अति शांत स्वर में प्रत्युत्तर में कहा । वातावरण बड़ा गंभीर हो गया था। कुछ समय पष्चात वह फिर बोली भाभी क्षमा करो । आप के व्यक्तिगत जीवन में हस्तक्षेप करने वाली मैं कौन हूं किन्तु क्या करूं मुझे ऐसी ही शिक्षा और संस्कार भैय्या ने दिए हैं उनकी ही बात मैने उनको स्मरण करा दिया था । हम दोनों ईश्वर से प्रार्थना करें वे विजयी होकर सकुशल घर वापिस लौटें उसने स्नेह से भाभी का हाथ पकड़ लिया ।

लालकुंवरी क्या जानती थी विधाता एक दिन उसकी इसी प्रकार परीक्षा लेगा । बहिन की प्रताड़ना और उलाहना अनरुद्ध के कानों में बार बार गूंजने लगी । उसे वीर मन पर दुर्बलता की पड़ी राख झड़ चुकी थ दहकतेअंगारे समान उ सका पौरुष दहक उठा था । उ सने पुनःपुनः अपनी सेना ऐकत्रित की । चोट खाए घायल सिंह के समान शत्रु सैनिको पर टूटपड़ा । शत्रुओं को मुंह की खानी पड़ी । वीर की भांति विजयी होकर वह घर वापसी लौटा । भाई की विजय का समाचार सुन लालकुवरि कर रोम रोम पुलतित और हर्षित हो उठा था । सर्वत्र अनिरुद्ध की जयजयकार हो रही थी । विजय के डके बज उठे थे । जनता विजय का श्रेय उसको देती तो अनिरुद्ध कहता नहीं भाई इसकी वास्तविक अधिकारी है मेरी यह छोटी बहिन। बहिन ने द्वारपर विजयी भाई की आरती उतारी अपने द्वारा प्रयोग किए गए तीखे शब्दों पर उसने भाई से क्षमा मांगी । अनिरुद्ध मुसकराया औ हल्की से बहिन को चपत लगाई बोला बहिन तूने ठीक किया थ । उस समय तो सचमुच तूने मेरी मां का उत्तरदायित्व ही निभाया । मैंधान्य हो गया तुझ सी छोटी बहिन पाकर । अच्छा चलचल बड़ी बड़ी भूख लगी है पहले जलपान ला । प्रमुदित मन से भागी लाली । भैय्या प्रसन्नता में यह तो मैं भूल ही गयी थी । कितना अच्छा भाई था उसका । किसी को भी ईर्ष्या होती उस पर उसने बहिन को उठा लिया । सिर पर हाथ फेरा । तत्पश्चात स्वयं बहिन के पैर छू लिए । असे भैय्‌या । यह क्या उल्टी गंगा बहा रहे हो लाली बोली चुप । शैतान की बच्चीकी अब जल्दी मुझे तेरे पैर पूजन है तुझे यहां से खदेड़ना है । पति के घर । अनिरुद्ध की रस भरी बाते सुन लाली बोली , हूं बड़े आए भेजने वाले शर्म से आंख नीचे कर वह भागी । कुछ समय बाद ही लालकुंवरि का चम्पतराय से विवाह हो गया । भाई ने बड़ी धूमधाम से बहिन को पति गृह के लिए विदा किया था वह वह पतिगृह महोबा आई ।



बुदेलखंड और मालवा में अनेकों छोटे छोटे राज रजवाड़े थे । बुंदेले आपस में लड़ते । मुस्लिम आक्रान्ताऒं केआधीन भयग्रस्त और आतंकित हिन्दू राजाओं को संगठित करने और मुगलों से देष की धरती को मुक्त कराने को वीरांगना लालकुंवरि पति को सदा प्रेरित करती रहती । वह भी स्वयं युद्ध में पति केसाथ जाती । बड़ी अच्छी जोड़ी थी दोनों की । स्वाधीनता के इन परवानों की । हिन्दू समाज को शक्ति सम्पन्न बनाने का महान लक्ष्य थाउनके सामने । उ न्होंने ओरछा का मुक्त कराने में स्वर्गीय वीर सिंह का पूरा सहयोग दिया था ।

शाहजहां के स्थान पर औरंगजेब शासनरूढ़ हुआ । हिन्दू शक्ति को कैसे सहन करता ? चम्पतराय को जिंदा या मुर्दापकड़ने की उसेन घोषणा की थी । लोगों को बड़े बड़े पुरस्कार देने के लिए प्रलोभन दिए गए थे । चम्पतराय कभी जय तो कभी पराजय के बीच झूल रहे थे । इतने बड़े साम्राजय से टक्करक वे ले रहे थे ।यह कोई सरल काम नहींथा । बड़ा पुत्र सारवाहन तो स्वतंत्रता की बलिवेदी पर पहले ही बलि चढ़ गया था । उस समय छत्रसाल की आयु केवल ६ वर्ष की थी । अनवरत घोड़े की पीठ पर संघर्ष करते करते उनका शरीर पूरी तरह से टूट चुका था । उनकी शक्ति भी क्षीण हो गयी थी अपने भी पराये बन गए थे । पर वाह रे भारत मों के सपूत । तूने शत्रुओं के सामने घुटनेनहीं टेके । इसीलिए इतिहास में तू अमर हो गया । देश भक्तों को प्रेरणा स्रोत बन गए । मुगल सेना लगातार पीछा कर रही थीं औरंगजेब ने सभी रजवाड़ों को धमकी दे रखी थी कियदि किसी ने भी चम्पतराय को शरण दी तो उसको नेस्तानाबूत कर दिया जाएगा । जिनके लिए उन्होंने पूरा जीवन दिय वे ही उसकी जान के पीछे पड़ गए । ओरछा के सुजना शुभकरण आदि मुगल फौजदार नामदार खां के साथ उनको जीवित या मुर्दा पकड़ कर मुगलों को सौंप कर पुरस्कार पाने की आशा में जी जान से लगे थे । मालवा में सहरा नामाका एक छोटा सा राज्य था वहां का राजा था इन्द्रमणि धंधेरा । वह चम्पतराय का मित्र था । चम्पतराय को तीव्र ज्वर चल रहा था । कई दिनों से पीछा नहीं छोड़ रहा था । उन्होंने सोचा कि किसी गुप्त स्थान पर कुछ दिन रहकर विश्राम करू । शक्ति का संचय कर पुनः शत्रु पर टूट पड़ूं इन्द्रमणि किसी युद्ध में बाहर गया हुआ था या पता नहीं उसका न मिलना संयोग था या जानबूझ कर ही वह वहां से निकल गया थाबात चाहे जो भी हो। उसे सहायक साहबराय धंधेरा ने चम्पतराय का बड़ा स्वागत सत्कार किया । वे अभी टिक भी नहीं पाए थे कि गुप्तचरों से संदेश मिला कि सुजान सिंह बुंदेला मुगल सेना के साथ पीछा करता बढ़ा चला आ रहा है । कुछ धंधेरों और सैनिको के संरक्षा में वे मोरन गांव की ओर चल पड़े । उनको अष्व पर चलन कठिन हो रहा था ।अतः पलंगपर लिटा कर उन्हें ले जाया गया । लालकुवरि अष्व पर सवार हो नंगी तलवार लिए पति की सुरक्षा के लिए साथ साथ चल रही थी। साहबराय कदाचित सुजानसिंह ओर मुगलो की धमकी में आ गया था । उसने कुछ धंधेरो को मार्ग में ही चम्पतराय की हत्या करने का संकेत कर दिया था । धंधेरे सैनिक भयभीत हो गए । यद्यपि इस जघन्य कृत्य करने का उनक मन नही कह रहा था । पर हाय रे । विष्वासघात । उन में से कुछ निकल ही आए । मुगलों ओर ओरछा का कोपभाजन कौन बने ? वे धोखा देकर चम्पतराय को मारने को लपके । कौन कहता है कि स्त्री अबला होती है । विष्वास घाती धंधेरे सैनिकों अबला अतिबला बनकर टूट पड़ी । उनके मुंह धरतीपर गिर पड़े । रानीके साथ निष्ठावान बुदेंले सैनिक थे । बचेखुचे धंधेरे उनको अकेला छोड़ भाग निकले । कई बुंदेले वीर शहीद भी हो गए । तब तक मुगल सैनिक भी आ चुके थे । बड़ी कठिन परीक्षा की घड़ी उपस्थित हुई केवल बस एक ही मार्ग शेष था आत्मसमर्पण या आत्तमर्पण का । चम्पताराय नेआत्मार्पण क निश्चय किया । शत्रुओ से पूरी तरह से अपने को घिरा हुआ देख वेसमझ चुके थे कि अब उनके जीवन क खेल खत्म हो चुका है । उनका शरीर इतना अशक्त था कि हाथ उठाने की क्षमता भी उनके शेष नहीं बची । अति क्षीण स्वर में वे पत्नी से बोले , लाली । तूने एकसहधर्मिणी के समान जीवन भर मेरा साथ दिय । अब क्या इस अंतिम बेला में ये विधर्मी मेरे शरीर को भ्रष्ट करेंगें स्वतंत्रता के लिए जीवन पर्यन्त लड़ने वाला अब क्या जंजीरों में बांध कर दिल्ली की सड़को पर घुमाया जाएगा ? मैं स्वतंत्र हूं स्वतंत्र ही रह कर ही मरना चाहता हूं । ओ । बड़ा दुस्सह होगा वह क्षण । उठाओं खंजर भोंक दो । मेरे सीन में । विलम्ब नहीं करो । पति की बात सुन लाकुंवरि विचलित हो गयीं । हे विधाता कैसी अग्नि परीक्षा है अब क्या अंतिम क्षणों में पतिहंता भी बनना पड़ेगा । मन में तूफान का वेग उमड़ पड़ा था चम्पतराय पत्नि के मन की दशा को समझ गए । किसी भी सती साध्वी पतिव्रता नारी के लिए अपने पति की हत्या करना बड़ा कठिन होता है । लाली तू वीर पत्नी है । सिंह पुत्रों की मां अब सोचने का समय नही है दूसरा कोई चारा नहीं जल्दी उठा खंजर । उखड़ते स्वर में वे बोले थे ।

लालकुंवरि को भाभी के ताने स्मरण हो आए थे । भाभी को कहे गए अपनेशब्द याद आएं अगर मेरा पति कायरता दिखातो तो सचमुच उसके सीन में कटार चुभो देती । पर वह कायर तो नहीं । नर श्रेष्ठ है वीर पुंगव क्या करें ? रानी के हाथों में कटार चमकी । पति के वक्षस्थल की ओर बढ़ी । तभी भगवान ने उसे पतिहंता के पाप से उबार लिया ।पत्नी की असमंजसता को देख चम्पतराय के अशक्त हाथों में अकस्मात न जाने कैसे एक विचित्र शक्ति आ गयी थी ।रानी का खंजर उनके सीन में चुभे कि उसके पूर्व ही उनकी स्वयं की कटार वक्षस्थाल में समा गयी । बिजली की गति से लाल कुवरि ने अपना बढ़ा खंजर स्वयं अपने सीने में उतार दिया । उसका शरीर निर्जीव होकर पति के चरणोमे गिर पड़ा । दोनो चिर निद्रा में मग्न हो गए थे मुगल आंख फाड़े इस अनोखे बलिदान को देख रहे थे । अवाक और स्तब्ध । आकाश में दो सितारे टूटे । क्षितिज में एक सिसे से दूसरे सिरे तक चमक कर लुप्त हो गए । उसके साथ हीदो सवीर आत्माए भी अनंत आकाश में विलीन हो गयी०। ६ नवम्बर १६६९ का वह दिन था ।चम्पतराय आरे लालकुवरि के हृदयों मे स्वतंत्रता का जो दीप जल रहा था उससे अंसख्य दीप ज्योतित हो उठे । वह दहका गयी बुंदेलों के हदयों मे तीव्र ज्वाला को । छत्रसाल के रूप में वह दावानल बन कर बह निकली प्राणनाथा प्रभु उसका सही राह पकड़ाई कालान्तर में उसकी तुफान में ध्वस्त हो गया मुगल साम्राज्य

वीर बुंदेले: जितेन्द्रिय वीर छ्त्रसाल

जितेन्द्रिय वीर छ्त्रसाल







वीर बुंदेलेछत्रसाल युवा थे । बात उस समय की है । उनका कद लम्बा था । शरीर के एक एक अवयव अति सुगठित और सुडौल थे । नेत्रों में अनोखा की आकर्षण । मुख्मंडल तेजस्वी आभा से युक्त था ।उनका गौरवर्ण का मुखड़ा किसी के भी मन को मोह लेता । लोगों की आखें बरबस उनकी ओर खिंची चली जातीं वृद्ध एवं वृद्धाएं उनमें अपने पुत्र की छवि निहारतीं युवक उनको अपने सुहृद के रूप में पाते । सैनिक अपने नेता की दृष्टि से देखते । उनके एक संकेतपर मर मिटने को सदा तत्पर रहते ।



 

कुमारियां मन ही मन अपने इष्टदेव से प्राथ्रना करती कि भगवन मुझे भी छत्रसाल ऐसा ही वीर और तेजस्वी पति दो । बच्चे तो उनको चाचा चाचा कह कर घेर लेते । वे भी उनको रोचक कहानिंया सुनाते । उनकी बोली में एक ऐसी मिटास थी कि सभी उस पर लट्टू हो जाते । सारे बुदेलखंड में वे इतने लोकप्रिय हो गए थे कि सभी के आशा के केन्द्र न गए । जन जन उनको अपने नेता के रूप में देखता ।ऐसा आकर्षक था उनका व्यक्त्तिव । यदि किसी की धन सम्पदा नष्ट हो जाती है तो वह कुछ भी नहीं खोता । क्योंकि उसका अर्जन पुनः किया जा सकता है । स्वास्थ्य में अगर घुन लग गया तो अवष्य कुछ हानि होती है । शरीर में ही तो स्वस्थ मन और मस्तिष्क रह सकता है । शरीरमाद्यंखलु धर्म साधनम । ध्येय साधना का वही तो अनुपम साधन है । माध्यम । किन्तु यदि चरित्र ही नष्ट हो गया तो उसको कोई भी नहीं बचा सकता । वह सर्वस्व से हाथ धो बैठता है । पतन की ओर उन्मुख हो जाता है मन का गुलाम बन जाता है ।वीर छत्रसाल धन, स्वास्थ्य और शील इन तीनों गुणों के धनी थे ।


 दुपहरिया का समय था ।ग्रीष्म ऋतु का । उन दिनों बुंदेखण्ड में धरती जल उठती है । संपूर्ण पठारी क्षेत्र भंयकर लू की चपेट में झुमस रह था । रात अवश्य ही कुछ ठंडी और सुहावनी हो जाती है ।दिन में तो सूर्य की गर्मी से दग्ध पत्थर तो जैसे आग ही उगलने लगते हैं । ऐससे ही समय में छत्रसाल अश्व पर सवार होकर कही जा हरे थे, यदा कदा वे स्वयं भी शत्रु की खोज खबर लेने को निकला करते थे । बिल्कुल अकेले थे । सारा शरीर पसीने से लथपथ था । बहुत थके हुए थे । उनके भव्य भाल पर पसीना चुहचुहाकर बह निकला था ।बीच बीच ममें वे अपने साफे के एक छोर से श्रम बिंदुओं को पोंछते जाते । कहाँ विश्राम करें ? आस पास कही कोई छायादार वृक्ष नहीं दीखा । बेमन से टप्‌ टप्‌ टप्‌ घोड़े को दौड़ाते आगे ही बढ़ते चले गए । एक ग्राम के निकट पहुंचे । वही पर उनको फलकदार एवं छायादार वृक्षों का एक छोटा सा बगीचा दीखा । यहीपर उन्होंने थोड़ी देर तक विश्राम करने का मन बनाया । अश्व भी वही बुरी तरह से हांफ रहा था । उसकी स्थिति को देखकर उनको तरस आ गया । उसकी छाती धौंकनी ऐसी धौक रही थी । नथुने फूल रहे थे । वे उस से उतर पड़े । एक पेड़ी की छाँव में उसको बांध दिया । कमर से फेंटा खोला । धरतीपर उसका बिछा दिया । मस्तक पर सेपगड़ी उतारी । उसका ही सिरहाना लगा वृक्ष की छाया मं लेट गए । उनको न जाने कब नींद आ गयी ।


 आंखे खुली । विस्मय से हैरान रह गए । देखा एक रूपवती युवती सामने खड़ी है, वह विमुगधा सी उनको एकटक निहारे जा रही थी । समझ में न आया । वह यहाँ पर क्यों आयी है । उनका माथा घूम गया । कही यह कोई जादूगरनी तो नहीं है ।जादू टोना करने को आई हो । उन दिनो में जादू टोना बड़ा प्रचलित था ।वे हड़बड़ा कर उठ बैठे ।


हे देवी आप कौन हैं ? यहां पर क्या कर रही हैं ? क्या मैं आपकी कोई सहायता कर सकता हूँ । छत्रसाल ने समझाथा कि यह नवयौवना सचमुच ही किसी संकट में है। अपनी आप बीती , दुखड़ा उनको सुनाने को आयी है ।उनके लिए यह कोई नयी बात नहीं थी साधारणतया इसी प्रकार के लोग प्रायः उनकेपास आते रहते थे । अपनी कष्ट कथा सुनाते । यथाशक्ति वे उनकी सहायता भी करते । अतः बड़ी सहजता से वे उससे उक्त प्रश्न पूंछ बैठे थे । युवती की दृष्टि नीचे की ओर गढ़ी हुई थी । वह अपने पेर के नख से धरती को कुरेद रही थी । सम्भवतः लज्जा ने उसको आ घेरा था ।वह बोलने में सकुचा रही था सोच रही थी सोच रही थी कि ऐसी बात कहे या नहीं । विवके और अविवेक में विपुल युद्ध छिड़ा हुआ था ।उसका मन इसी झूले में पेंगे मार रहा हो तो कोई आश्चर्य नहीं ।


बहिन । निसंकोच रूप से कहो क्या बात है छत्रसाल ने उससे पूछा । बहिन यह शब्द सुनते ही उसका चेहरा फक पड़ गया था । उसने साहस जुटाया । छत्रसाल से जो कुछ कहना था एक झटके में ही कह डाला । उसकी अभिलाषा को सुन छत्रसाल तो एक क्षण को संज्ञा शून्य से हो गए । दंग ओर अवाक । यह उनका पहला अनुभव था । उसको क्या उत्तर दें ? असमंजसता में पड़ गए थे । तुरंत कुछ उत्तर नहीं सूझा । वासना की इन्द्रियां जब शिथिल हो जाती है तब तो उन पर नियंत्रण कर पाना सरल हो जाता है किन्तु यौवन जब अपनी पूर्णता व चरम सीमा पर होताहै तब मन मस्तिष्क और वासनेद्रियों को अपेक्षाकृत काबू में रख पाना कठिन होता है और वह भी ब सुनसान एकांत स्थान हो । कोइ सोदर्यवती युवती सामने खड़ी हो और स्वेच्छा से प्रणयदान की याचना कर रही हो । ऐसे क्षणों में भी जो अडिग रहता हैवही इन्द्रियजयी , जितेन्द्रिय कहलाता है ऐसे क्षणों में बड़े बड़े साधक और तपस्वी की भी परहीक्षा हो जाती है ।


छत्रसाल को लगा कियह युवती उनकी परीक्षा ही लेने को आई है उस दृष्य को दख उन्होंने आंखो मुदं ली । युवती पर काम का मद सवार था । उसके गात थर थर कांप रहे । ।उसकी कामेंनद्रियां प्रदीप्त हो उठी थीं चेहरा लाल हो गया था । उसने छत्रसाल से बड़ी निर्लज्जता सेप्रणय निवेदन किया था कि वीर पुगंव मेंरी उत्कट अभिलाषा है कि तुम मुझे अपने अंक में समेट लो मुझको अपना लो । मैं आपके संसर्ग से एक संतान चाहती हूं । तुम जैसा ही वीरपुत्र मेरी कोख से जन्में । काम पीड़ा सेआहत उसका चेहरा तमतमा उठा था ।छत्रसाल की तोसिट्टी पिट्टी ही गुम हो गयी थी । उनकी बोलती बंद थी । दोनो के लिए परीक्षाकी घड़ी आ उपस्थित हुई थी । छत्रसाल की जितेन्द्रियता की और युवमी सदविवेक की । महर्षि विश्वामित्र के सामने मेनका भी ऐसे ही खड़ी रही होगी । वे तो क्षणिक आवेश में फिसल पड़ी थे किन्तु वह वीर चरित्र की कसौटी पर खरा उतरा था। कुछ ही क्षणामें में वे स्वस्थ हो गए । उनका चित्त स्थिर हो गया था । बाई जी मैं। हौं छत्ता । तौरो लरका ( हे माता । मैं छत्रसाल हूं तेरा पुत्र ) उन्होंने उससे कहा था ।उनके इस वाक्य ने ही उसको पानी पानी कर डाला था ।उसकी वासना की अग्नि पर शीतल जल की फुहार पड़ गयी । उसकी क्षणिक उत्तेजना शांत हो गयी । जिस माहेजाल में वह जा फंस थी वह कट चुका था ।उसका विचलित मन ठिकाने आ लगा था ।उसमें से निकल आयी थीं ऐ वात्सल्यमय जननी । उसके मन ने कहा धरती मैय्‌या तू फट जा । मैं पापिनी उसे समा जाऊँ । तू कैसी है री ? प्रणयकी याचना वह भी अपने पुत्र से हीं ओह यह मैने क्या कर डाला ? यह तो घोर पाप है । अनर्थ हैं उसकी अन्तरात्मा ने उसको कुरेदा और झकझोर डाला ।


वह शर्म से डूब गयी थी उसके नेत्रों से अश्रुधारा बह निकल ।पश्चाताप की गंगा में अवगाहन कर उसका मन शुद्ध और निर्मल हो चुका था ।यदि उस समय छत्रसाल उसको सम्हाल न लेते तो शायद वह आत्महत्या ही कर डालती । उन्होंने उसके मन की अवस्था को भांप लिया था । उसने छत्रसाल को सच्चे मन से अपना पुत्र स्वीकार कर लिया था । व्यक्ति के जीवन में बहुत बार ऐसे क्षण आते ह। यह अस्वाभाविक नहीं शरीर धर्म की मानव सहज दुर्बलता न्यूनाधिक मात्रा मे सबमें होती है । छत्रसाल ने भी एक निष्ठवान पुत्र के समान उसको मां का सम्मान प्रदान किया था । पता नहीं उसने विवाह किया या नहीं । इतिहास इसपर मौन है । कालान्तर में उसके धर्म पुत्र छत्रसाल ने अपनी इस मुंहबोली माता के लिए एक हवेली का निर्माण करवाया था । पन्ना से थोड़ी दूरपर यह स्थित है। बंऊआ जू की हवेली । ( माता जी की हवेली ) के नाम से आज ये प्रसिद्ध है । दोनो जब तक जीवित रहे मां बेटे का धर्म निभाया । बंऊआ जी पुत्र की स्मृति में जीवन पर्यन्त वहीं पर रहीं थी ।


अब नतो बंऊआ जू हैं और नही छत्ता । लेकिन आज भी खड़ी है वह हवेली । इतिहास की वह पंक्ति । छत्रसाल के इन्द्रियनिग्रही जीवन तथा उनके निर्मल वा उज्ज्वल चरित्र की कीर्ति की गाथा गा रही है ।








सोमवार, 30 मार्च 2009

पारीछत कौ कटक बेलाताल को साकौ'

यह श्री द्विज किशोर द्वारा विरचित बुन्देली की छोटी सी रचना है। यह ""बेला ताल कौ साकौ'' के नाम से भी प्रसिद्ध है क्योंकि इस काव्य में बेला ताल की लड़ाई का वर्णन है। इस रचना में जैतपुर के महाराज परीछत के व्यक्तित्व और उनके द्वारा प्रदर्शित वीरता का वर्णन किया गया है। सन् १८५७ से भी पहले महाराज पारीछत ने अंग्रेजी शासन के विरुद स्वाधीनता का बिगुल बजाया था। ""पारीछत कौ कटक'' अधिकतर जनवाणी में सुरक्षित रहा। सम्भवतः अग्रेजी शासन के भय से इसे लिपि वद्ध न किया जा सका होगा। लोक रागिनी में कई छन्द लुप्त होते चले गये हों तो आश्चर्य क्या।

ऐतिहासिक कालक्रम के अनुसार सर्वप्रथम हम श्री द्विज किशोर विरचित ""पारीछत को कटक'' की चर्चा करना चाहेंगे। ये पारीछत महाराज बुन्देल केशरी छत्रसाल के वंश में हुए, जैतपुर के महाराजा के रुप में इन्होंने सन् १८५७ के प्रथम भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम से बहुत पहले विदेशी शासकों से लोहा लेते हुये सराहनीय राष्ट्भक्ति का परिचय दिया। ""पारीछत को कटक"" आकार में बहुत छोटा है। यह ""बेलाताल को साकौ'' के नाम से भी प्रसिद्ध है। स्पष्ट है कि इस काव्य में बेला ताल की लड़ाई का वर्णन है। जैतपुर के महाराज पारीछत के व्यक्तित्व और उनके द्वारा प्रदर्शित वीरता के विषय में निम्नलिखित विवरण पठनीय है-
महाराज छत्रसाल के पुत्र जगतराज जैतपुर की गद्दी पर आसीन हुए थे। जगतराज के मंझले पुत्र पहाड़सिंह की चौथी पीढ़ी के केशरी सिंह के पुत्र महाराज पारीछत जैतपुर को गद्दी के अधिकारी हुए। इन्हीं महाराज पारीछत ने ईस्ट इण्डिया कम्पनी की सत्ता के विरुद्ध सन् १८५७ से बहुत पहले विन्ध्यप्रदेश में प्रथम बार स्वाधीनता का बिगुल बजाया। महाराज पारीछत की धमनियों में बुन्देल केसरी महाराज छत्रसाल का रक्त वे#्र से प्रवाहित हो उठा, और वे यह सहन न कर सके कि उनके यशस्वी पूर्वज ने अपनी वृद्धावस्था में पेशवा को जो जागीर प्रदान की थी, उसे व्यापारियों की एक टोली उनके मराठा भाइयों से छीनकर बुन्छेलखण्ड पर अपना अधिकार जमावे। महाराज पारीछत ने कई बार और कई वर्ष तक अंग्रेंजों की कम्पनी सरकार को काफी परेशान किया, और उन्होंने झल्लाकर उन्हें लुटेरे की संज्ञा दे डाली।
जान सोर, एजेन्ट ने मध्यप्रदेश में विजयराघव गढ़ राज्य के तत्कालीन नरेश ठाकुर प्रागदास को २० जनवरी, सन् १८३७ ई. को उर्दू में जो पत्र लिखा, उससे विदित होता हे कि महाराज पारीछत १८५७ की क्रान्ति से कम से कम २० वर्ष पूर्व विद्रोह का झण्डा ऊंचा उठा चुके थे। उक्त पत्र के अनुसार ठाकुर प्रागदास ने पारीछत को परास्त करते हुए उन्हें अंग्रेज अधिकारियों को सौंपा, जिसके पुरस्कार स्वरुप उन्हें अंग्रेजों ने तोप और पाँच सौा पथरकला के अतिरिक्त पान के लिए बिल्हारी जागीर और जैतपुर का इलाका प्रदान किया।
ऐसा अनुमान किया जा सकता है कि महाराज पारीछत चुप नहीं बैठै। उन्होंने फिर भी सिर उठाया, और इस बार कुछ और भी हैरान किया। उर्दू में एक इश्तहार कचहरी एजेन्सी मुल्क बुन्देलखण्ड, मुकाम जबलपुर खाम तारीख २७ जनवरी सन् १८५७ ई. पाया जाता है, जिसमें पारीछत, साविक राजा जैतपुर और उनके हमाराही पहलवान सिंह के भी नाम है।
उर्दू में ही एक रुपकार कचहरी अर्जेन्टी मुल्के बुन्देलखण्ड इजलास कर्नल विलियम हैनरी स्लीमान साहब अर्जेन्ट नवाब गवर्नर जनरल बहादुर बाके २४ दिसम्बर, सन् १८५७ के अनुसार- ""अरसा करीब २ साल तक कम व वैस पारीछत खारिजुल रियासत जैतपुर किया गया। सर व फशाद मचाये रहा और रियाया कम्पनी अंग्रेज बहादुर को पताया किया और बाजजूद ताकीदाद मुकर्रर सिकर्रर निस्वत सब रईसों के कुछ उसका तदारुक किसी रईस ने न किया हालांकि बिल तहकीक मालूम हुआ कि उसने रियासत ओरछा में आकर पनाह पाई''। इस रुपकार के अनुसार पारीछत के भाईयां में से कुंवर मजबूत सिंह और कुंवर जालिम सिंह की योजना से राजा पारीछत स्वयं अपने साथी पहलवानसिंह पर पाँच हजार रुपया इनाम घोषित किया था। राजा पारीछत को दो हजार रुपया मासिक पेंशन देकर सन् १८४२ में कानपुर निर्वासित कर दिया गया। कुछ दिनों बादवे परमधाम को सिधार गये। उनकी वीरता की अकथ कहानियाँ लोकगीतों के माध्यम से आज भी भली प्रकार सुरक्षित हैं। इन्हीं में ""पारीछत कौ कटक'' नामक काव्यमय वर्णन भी उपलब्ध है।
सन् १८५७ की क्रान्ति में लखैरी छतरपुर के दिमान देशपत बुन्देला ने महाराज पारीछत की विधवा महारानी का पक्ष लेकर युद्ध छेड़ दिया और वे कुछ समय तक के लिये जैतपुर लेने में भी सफल हुए। दिमान देशपत की हत्या का बदला लेने के लिए अक्टूबर १९६७ में उनके भतीजे रघुनाथसिंह ने कमर कसी।
""पारीछत कौ कटक'' अधिकतर जनवाणी में सुरक्षित रहा। ऐसा जान पड़ता है कि इसे लिपितबद्ध करने के लिए रियासती जनता परवर्ती ब्रिथ्टिश दबदबे के कारण घबराती रही। लोक रागिनी में पारीछत के गुणगान के कतने ही छन्द क्रमशः लुप्त होते चले गये हों, तो क्या अचरज है। कवि की वर्णन शैली से प्रकट है कि उसने प्रचलित बुन्देली बोली में नायक की वीरता का सशक्त वर्णन किया है। महाराज पारीछत के हाथी का वर्णन करते हुए वह कहता है-
""ज्यों पाठे में झरना झरत नइयां,त्यों पारीछत कौ हाथी टरत नइया।।
पाठे का अर्थ है एक सपाट बड़ी चट्टान। शुद्ध बुन्देली शब्दावली में ""नइयाँ'' नहीं है की मधुरता लेकर कवि ने जो समता दिखाई है, वह सर्वथा मौलिक है, और महाराज पारीछत के हाथी को किसी बुन्देलखण्उ#ी पाठे जैसी दृढ़ता से सम्पन्न बतलाती है।
चरित नायक महाराज पारीछत की वीरता और आत्म निर्भरता से शत्रु का दंग रह जाना अत्यन्त सरल शब्दावली में निरुपित हुआ हैं।ं
""जब आन पड़ी सर पै को न भओ संगी।अर्जन्ट खात जक्का है राजा जौ जंगी।।''
बुन्देली बोली से तनिक भी लगाव रखने वाले हिन्दी भाषी सहज ममें समझ सकेंगे कि पोलिटिकल एजेन्ट का भारतीय करण ""अर्जन्ट'' शब्द से हुआ है। जक्का खाना एक बुन्देली मुहावरा है जिसका बहुत मौजूं उपयुक्त प्रयोग हुआ है- "चकित रह जाना' से कहीं अधिक जोर दंग रह जाने में माना जा सकता है, परन्तु हमारी समझ में जक्का खाना में भय और विस्मय की सम्मिलित मात्रा सविशेष है।
पारीछत नरेश में वंशगत वीरता का निम्न पंक्तियों में सुन्दर चित्रण हुआ है।
""बसत सरसुती कंठ में, जस अपजस कवि कांह।छत्रसाल के छत्र की पारीछत पै छांह।।''
पारीछत के कटक का निम्नलिखित छन्द वर्णन शैली का भली प्रकार परिचायक है-
""कर कूंच जैतपुर से बगौरा में मेले।चौगान पकर गये मन्त्र अच्छौ खेले।।बकसीस भई ज्वानन खाँ पगड़ी सेले।सब राजा दगा दै गये नृप लड़े अकेले।।कर कुमुक जैतपुर पै चढ़ आऔ फिरंगी।हुसयार रहो राजा दुनियाँ है दुरंगी।।जब आन परी सिर पै कोऊ न भऔ संगी।अर्जन्ट खात जक्का है राजा जौ जंगी।।एक कोद अर्जन्ट गऔ, एकवोर जन्डैल।डांग बगोरा की घनी, भागत मिलै न गैल।।
उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट होता है कि ""पारीछत को कटक'' का बुन्देली रचनाओं में महत्वपूर्ण स्थान है। ऐतिहासिक दृष्टि से इस रचना का हिन्दी साहित्य में विशिष्ट महत्व है।

इत जमना उत नर्मदा, इत चम्बल उत टौंस।
छत्रसाल सौं लरन की, रही न काहूं हौंस।।
छत्रसाल स्वयं कवि थे। छत्तरपुर इन्हीं ने बसाया था। कलाप्रेमी और भक्त के रुप में भी इनकी ख्याती थी। धुवेला-महल इनकी भवन निर्माण-कला की स्मृति दिलाता है। बुंदेलखंड की शीर्ष उन्नति इन्हीं के काल में हुई। छत्रसाल की मृत्यु के बाद बुंदेलखंड राज्य भागों में बँट गया। एक भाग हिरदेशाह, दूसरा जगतराय और तीसरा पेशवा को मिला। छत्रसाल की मृत्यु १३ मई सन् १७३१ में हुई थी।
महाराज छत्रसाल इसके शीर्ष नेता माने जाते हैं। छत्रसाल मधुकर शाह के भाई उदोतसिंह के पौत्र चम्पतराय के पुत्र थे। चम्पतराय ने औरंगजेब के समय बुंदेलों की पहली राजधानी कलिं (महोबा के पास) ही थी बाद में वह पन्ना बना दी गई। बुंदेलखंड में अब तक मुसलमानों का वास भी प्रारंभ हो गया। इम्पीरियल गजेटियर के अनुसार ब्राह्मण, क्षत्रिय, लोध, अहीर, कुरमी और चमारों की जनसंख्या इस राज्य में विशेष रही है। वस्तुत: छत्रसाल तक वैष्णव धर्म की ही उन्नती हो रही थी। प्राणनाथ सम्प्रदाय को भी छत्रसाल के समय में प्रक्षय मिला। राजदरबार के कवियों ने वैष्णव भक्ति और घासी सम्प्रदाय (प्राणनाथ का दूसरा नाम) भक्ति दोनों के प्रभाव में काव्य रचनायें की हैं। कतिपय कबीरपंथी मार्ग का अनुसरण करने वाले (अक्षर अनन्य का विशेष संदर्भ) व्यक्तियों ने धर्म के बाह्यचारों का खण्डन करने का प्रयत्न किया है। छत्रसाल का शासन काल राष्ट्रीय उन्मेष का युग था। लाल कवि एक योद्धा कवि, सलाहकार की भांति छत्रसाल के जीवन की सत्य घटनाओं का चित्रण अपने काव्य में करते हैं जब भूषण शिवाजी को उद्बुद्ध कर रहे थे, लाला कवि का छत्रसाल के प्ति वही कार्य था। धार्मिक, सामाजिक, सांस्कृतिक दृष्टि से यह समस्त काल उन्मेष का था। हिन्दु संस्कृति और समाज दोनों में कट्टरता से नियमों का पालक किया गया। जाति प्रथा अत्यंत रुढ़ हो गई थी। छत्रसाल के वैभव एवं शौर्य की चर्चा शिवाजी के समानान्तर की जाती
बुंदेलखडं की सीमायें छत्रसाल के समय तक अत्यंत व्यापक थीं, इस प्रदेश में उत्तर प्रदेश के झाँसी, हमीरपुर, जालौन, बाँदा, मध्यप्रदेश के सागर, जबलपुर, नरसिंहपुर, होशंगाबाद, मण्डला तथा मालवा संघ के शिवपुरी, कटेरा, पिछोर, कोलारस, भिण्ड, लहार और मोण्डेर के जिले और परगने शामिल थे। इस पूर भूभाग का क्षेत्रफल लगभग ३००० वर्गमील था। अंग्रेजी राज्य में आने से पूर्व बुंदेलखंड में अनेक जागीरें और छोटे छोटे राज्य थे। बुंदेलखंड कमिश्नरी का निर्माण सन् १८२० में हुआ। सन् १८३५ में जालौन, हमीरपुर, बाँदा के जिलों को उत्तर प्रदेश और सागर के जिले को मध्यप्रदेश में मिला दिया गया, जिसकी देख रेख आगरा से होती थी। सन् १८३९ में सागर और दामोह जिले को मिलाकर एक कमिश्नरी बना दी गई जिसकी देखरेख झाँसी से होती थी। कुछ दिनों बाद कमिश्नरी का कार्यालय झाँसी से नौगाँव आ गया। सन् १८४२ में सागर, दामोह जिलों में अंग्रेजों के खिलाफ बहुत बड़ आन्दोलन हुआ परंतु फूट डालने की नीति के द्वारा शान्ति स्थापित की गई। इसके बाद बुंदेलखंड का इतिहास अंग्रेजी साम्राज्य की नीतियों की ही अभिव्यक्ति करता है। अनेक शहीदों ने समय समय पर स्वतंत्रता के आन्दोलन छेड़े परंतु गाँदी जी जैसे नेता के आने से पहले कुछ ठोस उपलब्धि संभव न हुई।